’ओह,
फिर किसी ने मुझे पुकारा।
वर्षों बीत गए
इस पुकार को सुनते।
यह पर्वत,
जब पेड़ों से भरे होते थे
तब भी मुझे बुलाते थे
अपने पेड़ों की डालियों को हिलाकर ,
और आज भी जब
ये नग्नप्राय हो गये हैं
इस के वृक्ष काट दिए हैं
अर्थ- पिपासु मनुष्यों ने।
ये भूरे भूरे पर्वत
आज भी मुझे
बुलाते हैं अपने आश्रय में।
यह नदी बचपन से,
मुझे अपने वक्ष में छिपाना चाहती है
अब से नहीं,
जब यह भरी पूरी थी ,
स्वच्छ थी
तब वो स्वच्छ लहरें मुझे
आमन्त्रण देती थीं
कहीं दूर ले जाने के लिए
और आज जब इसका पानी
गंदला कर दिया ,
धर्म का आडम्बर करने वाले मनुष्यों ने
यह गंदली नदी
जिसमें अपना अक्स भी
धुंधला नज़र आता है
बुलाती है अपने आश्रय में।
यह विस्तीर्ण विस्तृत नभ
बुलाता रहा है वर्षों से
अपने पक्षियों से मुझे
संदेश भेजता रहा है
अब जब कि पक्षी भी
लालची शिकारियों का
भक्ष्य बनते गये हैं
तब भी यह स्वयं ही
मुझे बादलों से
हाथ हिलाकर बुलाता है।
मैं सदा से ही
इन सभी की पुकार
सुनती आई हूँ।
पर क्या करूंअसमर्थ हूँ
इन पुकारों का
अनुसरण करने में।
यह कुछ न कर पाने की विवशता उतर आती है,
कागज़ के कोरे पन्नों में।
कभी मैं जाऊंगी
इन पुकारों के पीछे
शांति पाऊंगी नभ की छाया में
नदी का आँचल ओढ़कर,
पर्वत की गोद में सो जाऊंगी।
ऐसा होगा और
मैं अवश्य ही ऐसा कर पाऊंगी।

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