बारिश, बाढ़ और अब बीमारी का भय
जितेन्द्र बच्चन
शहर हो या गांव, बारिश और बाढ़ से आई तबाही का मंजर हर जगह देखने को मिल रहा है। जहां बाढ़ का प्रकोप अभी नहीं हुआ है, वहां भी लोग डरे-सहमे हुए हैं। न जाने कब तबाही अपना रुख उनकी तरफ कर ले। अचानक काल के गाल में समा गए लोग, बर्बाद हुई फसलें, तबाह हुए किसान और आसमान छूते सब्जियों के भाव ने हरेक की चिंता बढ़ा दी है। गम और गुस्से में लोगों ने सरकार को कोसना शुरू कर दिया है- जब पता है कि बारिश होगी, बाढ़ आ सकती है और तबाही का मंजर देखने को मिलेगा तो अधिकारी और कर्मचारी इतने लापरवाह क्यों बने रहते हैं? हर साल उन्हें किसी आपदा के आने का इंतजार क्यों रहता है?
सरकार यह तो अच्छी तरह से जानती है कि बारिश होगी और बाढ़ आएगी। गंदगी फैलेगी और सब्जियों के दाम भी आसमान छुएंगे, तो इसे काबू में करने के लिए आखिर पहले से तैयारी क्यों नहीं की जाती? जमाखोरों को अवसर क्यों दिया जाता है? उन पर लगाम क्यों नहीं लगाई जाती? अचानक रेट बढ़ाने वालों के खिलाफ एफआईआर क्यों नहीं होती? हर दुकानदार अपनी मर्जी से रेट तय करेगा, क्या? व्यापारी भाईयों की अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह भी अपना हित सुरक्षित रखते हुए इस बाढ़-आपदा के समय में समाज का साथ दें? एक आदर्श प्रस्तुत करें।
दरसअल, सरकार का रुख इस मामले में साफ नहीं है। वोट बैंक के चक्कर में ज्यादातर सरकारें व्यापारियों के खिलाफ कठोर कदम उठाने से बचती हैं। आखिर चुनाव में ‘सहयोग’ जो मिलता है। इसीलिए सरकार महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों पर कभी पूरी ईमानदारी से काम करती नजर नहीं आती। विपक्ष को भी बैठे-बिठाए एक नया मुद्दा मिल जाता है। कार्यकर्ता आवाज बुलंद करने का नाटक शुरू कर देते हैं। धरना-प्रदर्शन होने लगता है। लेकिन आम आदमी के पल्ले कुछ नहीं पड़ता। गरीब और मध्यम वर्ग पहले भी मरता-खपता रहा है, आज भी तिल-तिलकर जीने को मजबूर है। बस इतना अंतर आया है कि पहले पेट की आग बुझाने के लिए मेहनत-मजदूरी करनी पड़ती थी। अब महीने भर सरकार के पांच किलो राशन पर गुजर-बसर करने के लिए लाइन में खड़ा रहता है।
यह हम नहीं कह रहे हैं, ऐसा सरकार मानती है। शासन-प्रशासन बारिश से पहले नाले-नालियों की सफाई करने की बात करता है, कहीं-कहीं कुछ काम होता भी है लेकिन जो सिल्ट या गाद निकाली जाती है, उसे बराबर उठाया नहीं जाता। बारिश के साथ वह फिर उसे नाले में समा जाती है या गालियों और सड़कों पर फैलकर गंदगी फैलाती है। बड़ी-बड़ी बीमारियों को न्योता देती है। सफाइकर्मी, सुपरवाइजर और नगर निगम या नगर पालिका के अधिकारी अपने पद पर बने रहते हैं। उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती। इसी तरह नदियों का जो रास्ता है, उसमें भी तरक्की के नाम पर अवरोध उत्पन्न किया गया है। नदियों के किनारे तक लोग मकान बनाकर बस गए हैं। ठेकेदारों ने प्लाट काट दिए। होटल और रेस्टोरेंट बना दिए, सरकार के नुमाइंदे जेब में नोट भरकर कान में अंगुली डालकर सोते रहे। फिर बरसात में जब नदी उफनाई तो कहां जाएगी? वह अपना रास्ता तो तय करेगी न?
आबादी में पानी प्रवेश करते ही लोग बाढ़ आने की दुहाई देने लगते हैं और सरकार आपदा के नाम पर कुछ मदद-इमदाद देकर जनता का दिल जीतने की कोशिश करती है। आखिर उसे अपनी पार्टी का वोट बैंक भी तो देखना है। कोई अपने गिरेबां में नहीं झांकता। सरकार, राजनीतिक पार्टियां और शासन-प्रशासन अगर आत्ममंथन कर लें तो अगली साल बारिश और बाढ़ से होने वाली बार्बादी निश्चित ही कम की जा सकती है। लेकिन ऐसा नहीं होगा। होगा वह जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। आपदा में नेताओं, अधिकारियों और कर्मचारियों ने अवसर तलाशना शुरू कर दिया है। शहरों में बारिश से गिरे घर और गांवों में चौपट हुई फसल अथवा जन-धन हानि का जायजा लेने लेखपाल, तहसीलदार और राजस्व विभाग के अन्य कर्मचारी क्षेत्रवार का दौरा करेंगे, बाढ़ पीड़ितों को कितनी और कैसे आर्थिक सहायता दी जाए, उनका मुआवजा कितना तय हो, यह सरकारी बाबूओं के रहमोकरम पर निर्भर होगा।सरकार दावा करेगी, पड़ितों का एक-एक पैसा सीधे उनके खाते में जाएगा। सारा सिस्टम ऑन लाइन कर दिया गया है, लेकिन कई ऐसी योजनाएं हैं, जिनके आवेदन तो ऑनलाइन होते हैं पर जब तक उनका प्रिंट निकालकर संबंधित अधिकारी या कर्मचारी को मैनुअल नहीं दिया जाता, उससे जुड़ी एक भी कार्रवाई आगे नहीं बढ़ती। और उसी कार्रवाई के नाम पर शुरू हो जाता है रिश्वत का लेन-देन! सीएम हो या पीएम, करते रहे दावे पर दावे। ऊपर से लेकर नीचे तक कल भी लूट-खसोट होती थी और आज भी जारी है। इस आपदा से जो बच जाएंगे, उन्हें तरह-तरह के संक्रामण से जूझना पड़ेगा। जिन अस्पतालों में पहले से ही मरीजों को अच्छा इलाज नहीं मिलने की शिकायत है। कहीं डॉक्टर नहीं हैं तो कहीं दवाओं का अभाव है, वहां जलजमाव और बढ़ती गंदगी से जो बीमारी फैलेगी (ईश्वर करे ऐसी कोई बीमार न हो), उसका इलाज कैसे होगा? क्या सरकार इस समस्या से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है?
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)*

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