8मातृ दिवस मनाने की सार्थकता बच्चों में मानवीय गुण विकसित करवाने में है : एक विचार
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मर्मांतक पीड़ा सहन कर संतति को जन्म देना,प्रत्येक महीने शरीर से बालटीभर खून, और हार्मोंस औपरेटेड शरीर की मूक भाषा को समझने का असफल प्रयास, भोजन की चिन्ता, परिवार का स्वास्थ्य, बच्चों की पेरेंट्स टीचर्स मीटिंग, , बाथरूम की टाइल्स और टायलेट की सीट को रगड़ने के लिए समय बचाती महिलाओं के लिए एक दिन तो बनता है ।
सोचती हूं एक तरफ जिम से पसीना बहाकर निकलती, जहाज उड़ाती , ब्यूरोक्रेसी में ऊंचे पदों पर आसीन महिला, उच्च शिक्षा के लिए देश-विदेश में रीसर्च करने वाली महिला , अपने प्रेम के लिए परिवार से बगावत करने वाली महिलाएं, निश्चित रूप से स्वतंत्रता का आभास कराती हो। लेकिन कितनी महिलाओं को यह स्वतंत्रता नसीब हुई क्या इस प्रकार की स्वतंत्रता के लिए अद्वितीय रूप से साहस या भाग्यवान होना आवश्यक नही?? या ऐसी महिलाओं के जीवन में संघर्ष नही???
इतिहास पर नजर डालें तो , स्त्री जाति के संघर्ष का कोई अंत नहीं । कितना ही स्त्री सशक्तिकरण की बात करे कोई अपने हिस्से का संघर्ष हमेशा ही रहा। पढ़ लिख कर नौकरी लगने से फाइनेंशियल सिक्योरिटी तो हुई लेकिन शारीरिक और मानसिक दबाव बढ़ता ही चला गया। मैं महिला अधिकार का पुरजोर समर्थन करती हूं इसलिए नहीं कि मैं महिला हूं बल्कि महिलाओं के जीवन का बारीकी से अध्ययन करने के बाद मुझे लगता है कि अगर मानव जाति में किसी को सच में कुछ अलग महत्व दिए जाने की आवश्यकता है तो वह केवल महिलाएं हैं जाति धर्म से परे इंसानियत के नाते, क्योंकि वह जननी हैं। लेकिन इस नफा नुकसान वाले युग में जहां हर रिश्ते को फायदे के लिए प्रयोग किया जाता है बेटियों को या तो पैदा होने से पहले मार दिया जाता है, या शादी करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली जाती है या फिर जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा दिया जाता है। इन सब में भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है । यह निरंतरता चाहे पति के साथ सती होने से लेकर वर्तमान में बेटियों की खरीद-फरोख्त तक, समय जैसा है वैसा ही चलता रहता है। अब प्रश्न उठता है कि किस प्रकार से समस्याओं से निजात पाई जाए??
तो इसका रास्ता भी स्वयं महिलाओं को ही सोचना होगा । प्रतेक मां अगर अपने बच्चे को जात- धर्म, अमीरी- गरीबी ,पुत्र- पुत्री से परे एक मानव बनाएं तो यह संभव है। स्त्रियों की शिक्षा दीक्षा से ज्यादा पुत्रों के संस्कारों पर ध्यान दें तो यह संभव है। वैसे भी समाज का एक विकृत रूप जिसके बारे में सोचने से ही आत्मा सिहर उठती हैं ।वह है छोटी बच्चियों का बाजार ।मैं कभी-कभी सोचती हूं कि किसी भी मां को चैन की नींद कैसे आ सकती है जब तक वह किसी दूसरी मां की बेटी की बोली लगते हुए देखती होगी। सब कुछ संभव है अगर माताएं अपने हाथ में बागडोर ले ले अपनी संतति की तो, अश्लीलता का कारोबार करने वाले राज कुंद्रा जैसे हजारों लोग भी तो आखिर किसी न किसी मां की कोख से ही जन्मे होगे ,कहीं ना कहीं वह मां संस्कार देने में पीछे रह गई होगी शायद! आखिर कब हम समाज के राक्षसों को इंसान बनते हुए देखेंगे। इसमें हमारी जिम्मेदारी बनती है कि अगर ईश्वर ने हमें अपनी आवाज उठाने की स्वतंत्रता प्रदान की है तो इसका भरपूर उपयोग करें किसी भी बलात्कार के बाद कैंडल जलाने का कोई औचित्य नहीं बल्कि, अपने बच्चों को चाहे लड़का हो या लड़की संस्कार युक्त बनाएं ताकि लड़की किसी भी घर से निकले आपके बेटे के होते हुए संसार में अकेली ना महसूस करे । मैं मानती हूं कि प्रयास छोटा होगा लेकिन देख लीजिएगा बहुत दूर तक जाएगा।
और तभी मातृत्व का गर्व हमारे चेहरे पर दिखाई देगा और मातृ दिवस की सार्थकता भी तभी होगी।

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